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Friday 9 August 2024

मुंशी प्रेमचंद








मुंशी प्रेमचंद हिन्दी और उर्दू के महानतम भारतीय प्रसिद्ध लेखक तथा उपन्यासकार में से एक हैं। उनका जन्म का नाम धनपत राय श्रीवास्तव था, उन्होंने अपने दुसरे नाम “नवाब राय” के नाम से अपने लेखन की शुरुवात की लेकिन बाद में उन्होंने अपने नाम को बदलकर “प्रेमचंद” रखा। वे एक सफल लेखक, देशभक्त नागरिक, कुशल वक्ता, ज़िम्मेदार संपादक और संवेदनशील रचनाकार थे। उपन्यास के क्षेत्र में उनके योगदान को देखकर बंगाल के विख्यात उपन्यासकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने उन्हें ‘उपन्यास सम्राट’ कहकर संबोधित किया था।

मुंशी प्रेमचंद का परिचय – Hindi Writer Munshi Premchand Biography in Hindi

नामधनपत राय श्रीवास्तव उर्फ़ नवाब राय उर्फ़ मुंशी प्रेमचंद (Munshi Premchand)
जन्म दिनांक31 जुलाई, 1880
जन्म स्थानलमही गाँव, वाराणसी, उत्तर प्रदेश
मृत्यु8 अक्तूबर 1936, वाराणसी, उत्तर प्रदेश
पिता का नाममुंशी अजायब लाल
माता का नामआनन्दी देवी
पत्नीशिवरानी देवी
संतानश्रीपत राय और अमृत राय (पुत्र)
भाषाहिन्दी, उर्दू
कर्म-क्षेत्रअध्यापक, लेखक, उपन्यासकार
मुख्य रचनाएँगोदान, कर्मभूमि, रंगभूमि, सेवासदन



प्रेमचंद ने अपने जीवन में एक दर्जन से भी ज्यादा उपन्यास, तक़रीबन 300 लघु कथाये, बहुत से निबंध और कुछ विदेशी साहित्यों का हिंदी अनुवाद भी किया है। प्रेमचंद ने हिन्दी कहानी और उपन्यास की एक ऐसी परंपरा का विकास किया जिसने पूरी सदी के साहित्य का मार्गदर्शन किया। आगामी एक पूरी पीढ़ी को गहराई तक प्रभावित कर प्रेमचंद ने साहित्य की यथार्थवादी परंपरा की नींव रखी। वे एक संवेदनशील लेखक, सचेत नागरिक, कुशल वक्ता तथा सुधी (विद्वान) संपादक थे।

प्रारंभिक जीवन – Early Life of Munshi Premchand 

प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1880 को वाराणसी केनिकट लमही गाँव में हुआ था। उनकी माता का नाम आनन्दी देवी था। व पिता का नाम मुंशी अजायबराय था। उनके पिता लमही में डाकमुंशी (पोस्ट ऑफीस) थे। उनके पूर्वज विशाल कायस्थ परिवार से संबंध रखते थे, जिनके पास अपनी खुद की छह बीघा जमीन भी थी। उनके दादा गुर सहाई राय पटवारी थे। प्रेमचंद अपने माता-पिता के चौथे पुत्र थे। उनके माता-पिता ने उनका नाम धनपत राय रखा, जबकि उनके चाचा महाबीर ने उनका उपनाम “नवाब” रखा। प्रेमचंद द्वारा अपने लिए चुना गया पहला नाम “नवाब राय” था।

शिक्षा और शादी – Munshi Premchand Education

उनकी शिक्षा का आरंभ उर्दू, फारसी से हुआ और जीवनयापन का अध्यापन से पढ़ने का शौक उन्‍हें बचपन से ही लग गया। जब मुंशी प्रेमचंद 7 साल के थे तभी उन्होंने लालपुर की मदरसा में शिक्षा प्राप्त करना शुरू किया। मदरसा में प्रेमचंद ने मौलवी से उर्दू और फ़ारसी भाषा का ज्ञान प्राप्त किया।

जब प्रेमचंद 8 साल के हुए तो उनके माँ की एक लंबी बीमारी के चलते मृत्यु हो गयी यही। उनकी दादी, ने बाद में प्रेमचंद को बड़ा करने की जिम्मेदारी उठाई, लेकिन वह भी कुछ दिनों बाद चल बसी। उस समय प्रेमचंद को अकेला महसूस होने लगा था, क्योकि उनकी बहन का भी विवाह हो चूका था और उनके पिता पहले से ही काम में व्यस्त रहते थे। और उनके पिता दोबारा शादी कर ली ताकि बच्चो की देखभाल हो सके लेकिन प्रेमचंद को अपने सौतेली माँ से उतना प्यार नही मिला जितना उन्हें चाहिये था। लेकिन प्रेमचंद को बनाने में उनकी सौतेली माँ का बहुत बड़ा हाथ रहा है।

13 साल की उम्र में ही उन्‍होंने तिलिस्म-ए-होशरुबा पढ़ लिया और उन्होंने उर्दू के मशहूर रचनाकार रतननाथ ‘शरसार’, मिर्ज़ा हादी रुस्वा और मौलाना शरर के उपन्‍यासों से परिचय प्राप्‍त कर लिया। उनके पिता के जमनिया में स्थानांतरण होने के बाद 1890 के मध्य में प्रेमचंद ने बनारस के क्वीन कॉलेज में एडमिशन लिया।

1895 मे उन दिनों की परंपरा के अनुसार मात्र 15 साल की आयु में ही उनका पहला विवाह हो गया। उस समय वे सिर्फ 9 वी कक्षा की पढाई कर रहे थे। पत्नी उम्र में प्रेमचंद से बड़ी और बदसूरत थी। पत्नी की सूरत और उसके जबान ने उनके उपर जले पर नमक का काम किया। इस बारे मे प्रेमचंद स्वयं लिखते हैं, “उम्र में वह मुझसे ज्यादा थी। जब मैंने उसकी सूरत देखी तो मेरा खून सूख गया” उसके साथ – साथ जबान की भी मीठी न थी। उन्होने अपनी शादी के फैसले पर पिता के बारे में लिखा है “पिताजी ने जीवन के अन्तिम सालों में एक ठोकर खाई और स्वयं तो गिरे ही, साथ में मुझे भी डुबो दिया: मेरी शादी बिना सोंचे समझे कर डाली।” हालांकि उनके पिताजी को भी बाद में इसका एहसास हुआ और काफी अफसोस किया।

1897 में एक लंबी बीमारी के चलते प्रेमचंद के पिता की मृत्यु हो गयी थी। लेकिन इसके बावजूद उन्होंने उस समय दूसरी श्रेणी में मेट्रिक की परीक्षा पास कर ही ली। लेकिन क्वीन कॉलेज में केवल पहली श्रेणी के विद्यार्थियों को ही फीस कन्सेशन दिया जाता था। इसीलिए प्रेमचंद ने बाद में सेंट्रल हिंदु कॉलेज में एडमिशन लेने की ठानी लेकिन गणित कमजोर होने की वजह से वहा भी उन्हें एडमिशन नही मिल सका। इसीलिये उन्होंने पढाई छोड़ने का निर्णय लिया।

वे आर्य समाज से प्रभावित रहे, जो उस समय का बहुत बड़ा धार्मिक और सामाजिक आंदोलन था। उन्होंने विधवा-विवाह का समर्थन किया और 1906 में दूसरा विवाह अपनी प्रगतिशील परंपरा के अनुरूप बाल-विधवा शिवरानी देवी से किया। उनकी तीन संताने हुईं- श्रीपत राय, अमृत राय और कमला देवी श्रीवास्तव।

प्रेमचन्द की आर्थिक विपत्तियों का अनुमान इस घटना से लगाया जा सकता है कि पैसे के अभाव में उन्हें अपना कोट बेचना पड़ा और पुस्तकें बेचनी पड़ी। एक दिन ऐसी हालत हो गई कि वे अपनी सारी पुस्तकों को लेकर एक बुकसेलर के पास पहुंच गए। वहाँ एक हेडमास्टर मिले जिन्होंने उनको अपने स्कूल में अध्यापक पद पर नियुक्त किया।

सादा एवं सरल जीवन के मालिक प्रेमचन्द सदा मस्त रहते थे। उनके जीवन में विषमताओं और कटुताओं से वह लगातार खेलते रहे। इस खेल को उन्होंने बाज़ी मान लिया जिसको हमेशा जीतना चाहते थे। कहा जाता है कि प्रेमचन्द हंसोड़ प्रकृति के मालिक थे। विषमताओं भरे जीवन में हंसोड़ होना एक बहादुर का काम है। इससे इस बात को भी समझा जा सकता है कि वह अपूर्व जीवनी-शक्ति का द्योतक थे। सरलता, सौजन्य और उदारता की वह मूर्ति थे। जहाँ उनके हृदय में मित्रों के लिए उदार भाव था वहीं उनके हृदय में ग़रीबों एवं पीड़ितों के लिए सहानुभूति का अथाह सागर था। प्रेमचन्द उच्चकोटि के मानव थे।

लेखन कार्य – Munshi Premchand Novels

धनपत राय ने अपना पहला लेख “नवाब राय” के नाम से ही लिखा था। उनका पहला लघु उपन्यास असरार ए मा’ बीड़ (हिंदी में – देवस्थान रहस्य) था जिसमे उन्होंने मंदिरों में पुजारियों द्वारा की जा रही लुट-पात और महिलाओ के साथ किये जा रहे शारीरिक शोषण के बारे में बताया। उनके सारे लेख और उपन्यास 8 अक्टूबर 1903 से फ़रवरी 1905 तक बनारस पर आधारित उर्दू साप्ताहिक आवाज़-ए-खल्कफ्रोम में प्रकाशित किये जाते थे।

1908 मे प्रेमचंद का पहला कहानी संग्रह सोज़े-वतन अर्थात राष्ट्र का विलाप नाम से प्रकाशित हुआ। देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत होने के कारण इस पर अंग्रेज़ी सरकार ने रोक लगा दी और इसके लेखक को भविष्‍य में इस तरह का लेखन न करने की चेतावनी दी। सोजे-वतन की सभी प्रतियाँ जब्त कर जला दी गईं। इस घटना के बाद प्रेमचंद के मित्र एवं ज़माना पत्रिका के संपादक  मुंशी दयानारायण निगम  ने उन्हे प्रेमचंद के नाम से लिखने की सलाह दिया। इसके बाद धनपत राय, प्रेमचंद के नाम से लिखने लगे।

प्रेमचंद ने अपने जीवन में तक़रीबन 300 लघु कथाये और 14 उपन्यास, बहुत से निबंध और पत्र भी लिखे है। इतना ही नही उन्होंने बहुत से विदेशी साहित्यों का हिंदी अनुवाद भी किया है। प्रेमचंद की बहुत सी प्रसिद्ध रचनाओ का उनकी मृत्यु के बाद इंग्लिश अनुवाद भी किया गया है।

प्रेमचन्द की रचना-दृष्टि, विभिन्न साहित्य रूपों में, अभिव्यक्त हुई। वह बहुमुखी प्रतिभा संपन्न साहित्यकार थे। प्रेमचंद की रचनाओं में तत्कालीन इतिहास बोलता है। उन्होंने अपनी रचनाओं में जन साधारण की भावनाओं, परिस्थितियों और उनकी समस्याओं का मार्मिक चित्रण किया। उनकी कृतियाँ भारत के सर्वाधिक विशाल और विस्तृत वर्ग की कृतियाँ हैं।


मुंशी प्रेमचंद की मृत्यु –

सन् 1936 ई में प्रेमचन्द बीमार रहने लगे। उन्होने इस बीमार काल में ही आपने “प्रगतिशील लेखक संघ” की स्थापना में सहयोग दिया। आर्थिक कष्टों तथा इलाज ठीक से न कराये जाने के कारण 8 अक्टूबर 1936 में आपका देहान्त हो गया। और इस तरह वह दीप सदा के लिए बुझ गया जिसने अपनी जीवन की बत्ती को कण-कण जलाकर भारतीयों का पथ आलोकित किया। मरणोपरान्त, उनके बेटे अमृत राय ने ‘कलम का सिपाही’ नाम से उनकी जीवनी लिखी है जो उनके जीवन पर विस्तृत प्रकाश डालती है।

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